लेख @ घरेलू हिंसा का घेरा कहां तक?

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महिलाओं के लिए उनका घर-आंगन सबसे सुरक्षित स्थान होना चाहिए। परिवार और परिवेश में अपनों का संबल मिलना चाहिए। मान-सम्मान की रक्षा होनी चाहिए। दुखद है कि भारत ही नहीं, कमोबेश हर देश में घरेलू हिंसा का दंश महिलाओं के हिस्से है । मन और मान को ठेस पहुंचाने वाले इस बर्ताव के रंग-ढंग भले अलग हों, वैश्विक स्तर पर महिलाएं इस पीड़ा को झेल रही हैं। व्यक्तित्व और अस्तित्व को चोट पहुंचाने वाली घरेलू हिंसा महिलाओं के शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य के लिए भी चिंता का विषय बनी हुई है। अपनी ही देहरी के भीतर स्ति्रयों के साथ होने वाला हिंसात्मक व्यवहार मानवाधिकार का भी एक संवेदनशील मुद्दा है। हमारे देश में महिलाओं की बड़ी आबादी घरेलू हिंसा झेलने को विवश है। प्रगतिशील सोच और परिवर्तन की बहुत-सी बातों के बीच मानवीय व्यवहार के इस मोर्चे पर आज भी बदलाव की प्रतीक्षा है। यही कारण है कि घरेलू हिंसा की रोकथाम और पीडि़त स्ति्रयों की सुरक्षा सहयोग से जुड़े विषयों की सामाजिक पारिवारिक परिवेश में ही नहीं, न्यायिक निर्णयों में भी चर्चा होती रहती है।
आज भी बड़ी संख्या में महिलाएं घर के भीतर दुर्व्यवहार और मारपीट का शिकार बनती हैं। तकनीकी तरक्की और शिक्षा के बढ़ते आंकड़ों के बावजूद इस मामले में जागरूकता की कमी भी स्पष्ट दिखती है। सजग- शिक्षित महिलाएं भी अपना परिवार बचाने के लिए इस दुर्व्यवहार की शिकायत नहीं करतीं । इसीलिए घरेलू हिंसा से स्ति्रयों की सुरक्षा पुख्ता करने जुड़े इस पहलू पर उच्चत्तम न्यायालय ने सहयोगी और सजग परिवेश बनाने की बात कही। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अधिकारियों को अधिनियम के प्रावधानों के बारे में जागरूकता लाने, अधिनियम के तहत सेवाओं के प्रभावी समन्वय को सुनिश्चित करने और इसके प्रावधानों का मीडिया में पर्याप्त प्रचार करने और व्यापक कदम उठाने चाहिए। विशेषकर घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत निशुल्क कानूनी सहायता और सलाह के अधिकार के बारे में महिलाओं के बीच जागरूकता फैलानी चाहिए। इन निर्देशों में शीर्ष अदालत ने यह भी जोड़ा कि अगर कोई महिला कानूनी सहायता या सलाह के लिए संपर्क करती है, तो उसे शीघ्रता से सहायता प्रदान की जाए, क्योंकि अधिनियम प्रत्येक महिला को निशुल्क कानूनी सहायता के अधिकार की गारंटी देता है।
हमारे परिवारों में अधिकतर बदलाव सतही स्तर पर ही हुए हैं। मानसिकता और व्यवहार के मोर्चे पर सार्थक परिवर्तन अब तक नहीं आया। ऐसे में जागरूकता की कमी और पारिवारिक दबाव घरेलू हिंसा का घेरा कसे हुए है। पिछले वर्ष राष्ट्रीय महिला आयोग को महिलाओं के खिलाफ अपराधों की 25,743 शिकायतें मिलीं थी। इनमें सबसे अधिक 6,237 शिकायतें घरेलू हिंसा की थीं। यानी आपराधिक आंकड़ों में 24 फीसद की हिस्सेदारी घरेलू हिंसा की रही। यही वजह है कि इन शिकायतों में सम्मान के साथ जीने के अधिकार की मांग वाली शिकायतें अधिक थीं, जो कुल शिकायतों का लगभग 28 फीसद हैं। इतना ही नहीं, दहेज उत्पीड़न के मामले भी 17 फीसद रहे। समझना कठिन नहीं है कि दहेज उत्पीड़न के मामलों में भी शुरुआत में ही कई महिलाएं शारीरिक-मानसिक हिंसा झेलती ही हैं। दुखद है कि शिक्षित समाज में भी रुग्ण मानसिकता वाला यह व्यवहार महिलाओं के हिस्से है। घरेलू हिंसा का दंश भी हर समुदाय और हर वर्ग में देखने को मिलता है। अपने ही घर में महिलाओं के साथ हिंसक व्यवहार करने वाले शिक्षित और अशिक्षित, हर तबके के लोग हैं। भ्रम यह भी है कि केवल घरेलू महिलाएं ऐसी हिंसा और अपमान झेलती हैं। कई कामकाजी और आत्मनिर्भर स्ति्रयां भी घरेलू हिंसा झेलती हैं, क्योंकि यह बर्ताव असल में नकारात्मक और अमानवीय सोच से जुड़ा है, जिसमें परिवर्तन लाना दुष्कर कार्य बना हुआ है। स्ति्रयों के मान को ठेस पहुंचाने वाली सोच में बदलाव की धीमी गति को हाल ही में आए आंकड़े भी पुख्ता करते हैं। वर्ष 2025 की पहली तिमाही में राष्ट्रीय महिला आयोग में अब तक 7,698 शिकायतें दर्ज कराई गई हैं। शिकायतों की इस सूची में भी सबसे अधिक मामले घरेलू हिंसा के ही हैं। पीड़ादायक यह है कि महानगरों से लेकर गांवों-कस्बों तक, आंकड़ों में ही नहीं सहज रूप से भी सामाजिक परिवेश में इस विद्रूप व्यवहार की झलक दिख जाती है। घरेलू हिंसा का सबसे दुखद पक्ष यह कि इसे महिला की व्यक्तिगत समस्या समझा जाता है। आमतौर पर स्वजन भी यह दंश झेलती स्ति्रयों का साथ नहीं देते। परिजन चुपचाप सब कुछ सहने की नसीहत देने लगते हैं। वहीं कानूनी मोर्चे पर भी स्थितियां सहज नहीं हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि हाल के वर्षों में सामने आए घरेलू हिंसा के झूठे आरोपों ने सचमुच इस दुर्व्यवहार की शिकार बन रहीं महिलाओं को भी सवालों के घेरे में ला दिया है। अधिकतर महिलाएं शिकायत दर्ज कराने के बजाय चुप्पी चुन लेती हैं। एक रपट के अनुसार हमारे देश में केवल 0.1 फीसद महिलाएं ऐसी हिंसा के खिलाफ मामला दर्ज कराने के लिए आगे आती हैं। बुनियादी रूप से देखा जाए तो यह स्त्री-पुरुष के भेद से परे हर मनुष्य के आत्मसम्मान का मोल समझने का विषय है।
समझना आवश्यक है कि घर के भीतर होने वाली इस शारीरिक और मानसिक हिंसा के पीछे लैंगिक विभेद की सोच एक अहम कारण है। भेदभाव भरी इसी सोच के चलते कई कामकाजी महिलाओं की उपलब्धियां भी इस दुर्व्यवहार का कारण बन जाती हैं। आज भी जीवन साथी की रूढç¸वादी सोच के चलते न तो स्ति्रयों की योग्यता की सहज स्वीकार्यता दिखती है और न ही पारिवारिक स्तर पर पराए घर से आई बेटी के प्रति मान भरा व्यवहार । ऐसी हिंसा को बहुत से परिवारों में समर्थन भी मिलता है। नतीजतन, घरेलू हिंसा झेल रहीं स्ति्रयां अक्सर अकेली पड़ जाती हैं। ऐसे में अपनों की सोच और बर्ताव का बदलना ही घरेलू परिस्थितियों को बदल सकता है, ताकि सम्मानजनक और सुरक्षित व्यवहार स्ति्रयों के हिस्से आए। अंतरिक्ष तक पहुंच बनाने के दौर में बहुत आवश्यक है कि महिलाओं के लिए अपना आंगन सुरक्षित हो ।


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