कविता @ निशाचर…

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देखो तो आज इस जमाने में,
बिना अखबार के समाचार आया है।
दिन के उजियारे को मिटाने,
निशाचर के रूप में अंधकार आया है।।

जो दिन में डरा-डरा सा रहता है,
वो शाम ढलते ही भौंकने आया है।
रात के अंधेरी सुनसान – गली में,
राहगीरों का रास्ता रोकने आया है।।

जिसको खुद दिशा का पता नहीं,
वो मेरी दशा बिगाड़ने आया है।
मुझसे जबरन झगड़ा करके,
शराब का नशा निकालने आया है।।

इंसान कुत्ता बनकर भौंक रहा है,
शाम होते ही गली – चौराहों में।
मुझे जान मारने की धमकी देने आया है,
बहुत नफरत भरी है उसकी निगाहों में।।

उसके पैर राह में डगमगा रहा है,
फिर भी न जाने क्यों चिल्ला रहा है।
मेरा उससे कोई दुश्मनी ही नहीं,
फिर भी वो मुझ पर तिलमिला रहा है।।


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