सूरजपुर@बोलता सवाल: अधिवक्ता साहब! बिना खबर पढ़े और समझे बिना ही नौसिखिए तहसीलदार की तरह अपने आप को नौसिखिया अधिवक्ता घोषित कर रहे हैं?

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  • तहसीलदार साहब के अधिवक्ता को क्या यह भी नहीं पता कि पत्रकारिता के लिए डिग्री कीआवश्यकता नहीं होती?
  • तहसीलदार साहब के अधिवक्ता द्वारा पत्रकार को नोटिस! लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला?
  • मानहानि नोटिस में अधिवक्ता ने दिया जिला न्यायालय का पता,कानूनी प्रक्रिया पर उठे सवाल
  • पत्रकार को भेजे गए नोटिस पर अधिवक्ता के पेशेवर आचरण पर उठे सवाल,बार काउंसिल में शिकायत की तैयारी
  • तहसीलदार शिवनारायण राठिया ने अपने अधिवक्ता से घटती-घटना व पत्रकार को 10 लाख का वैधानिक नोटिस थमाया… पत्रकार ने कहा न्यायालय से करेंगे जाँच की मांग
  • न्यायालय भी देता है समाचार प्रकाशन पर स्वतंत्रता का अधिकार…तथ्यों के आधार पर समाचार प्रकाशित करना अपराध नहीं… राजेश सोनी वरिष्ठ पत्रकार
  • समाचारों के प्रकाशन पर किसी अधिवक्ता का अपने मुवक्किल की तरफ से नोटिस जारी करना कितना सही?
  • समाचार की स्वतंत्रता के बीच न्यायालय की धमकी क्यों?


-न्यूज डेस्क-
अंबिकापुर/सूरजपुर,30 अक्टूबर 2025
(घटती-घटना)।

कानून के रखवाले कहलाने वाले अधिवक्ता जब बिना खबर पढ़े,बिना तथ्यों की परख किए प्रतिक्रिया देने लगें तो सवाल उठना स्वाभाविक है,क्या यह अधिवक्ता धर्म की मर्यादा के अनुरूप है कि किसी समाचार के मूल तथ्यों को समझे बिना उस पर प्रतिक्रिया दे दी जाए? सूचना के इस युग में जहां हर शब्द और हर वाक्य मायने रखता है,वहाँ बिना पढ़े टिप्पणी करना न केवल गैर-जिम्मेदाराना है,बल्कि स्वयं की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगा देता है, कभी-कभी यह प्रतीत होता है जैसे तहसील के नए-नए अफसरों की तरह अधिवक्ता साहब भी बिना पढ़े, बिना समझे निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं और ऐसा करके स्वयं को ही ‘नौसिखिया अधिवक्ता’ सिद्ध कर रहे हैं? पत्रकारिता का धर्म है सत्य को उजागर करना और अधिवक्ता का धर्म है सत्य को समझना दोनों का दायित्व समाज के प्रति है, पर जब अधिवक्ता सत्य को समझे बिना बोलने लगें,तो समाज के लिए यह बोलता सवाल बन जाता है, कुछ ऐसा ही मामला तहसीलदार शिवनारायण राठिया के अधिवक्ता ने घटती-घटना के पत्रकार को वैधानिक नोटिस भेजा,जिसमें पत्रकारिता के लिए डिग्री न होने को आधार बनाया गया,पत्रकारों और कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में पत्रकारिता के लिए किसी डिग्री या डिप्लोमा की आवश्यकता नहीं है,संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है,जिसमें पत्रकारिता शामिल है,नोटिस में अधिवक्ता ने पत्रकार को अनुचित लाभ की बात कही,जबकि इसका कोई सबूत नहीं है,यह कदम लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को डराने और बाधित करने का प्रयास प्रतीत होता है?
बता दे की लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होना और सच्ची खबरों को तथ्यों के साथ प्रकाशित करना कितना कठिन हो चुका है यह घटती घटना से या घटती घटना के पत्रकार से ही जाना जा सकता है,पिछले कई सालों में पत्रकार व अखबार को कई खबरों पर नोटिस आ चुका है नोटिस भी ऐसे ऐसे आते हैं ऐसा लगता है कि अपराध या गलत कार्यों को बढ़ावा देना और उनका बचाव करना ही अब इसका उद्देश्य हो गया है,एक बार फिर दैनिक घटती-घटना के संपादक व पत्रकार को भैयाथान तहसीलदार के अधिवक्ता ने 10 लाख का मानहानि का वैधानिक नोटिस थमा दिया है पर नोटिस को पढ़ने के बाद व देखने के बाद नोटिस ही एक बहुत बड़ी खबर समझ में आने लगी,नोटिस देने वाले अधिवक्ता ने पत्रकारों की डिग्री पर अपने वैधानिक नोटिस पर जिक्र किया है पर सवाल यह उठता है कि जिस संविधान ने उन्हें वकालत करने के लिए डिग्री लेने की बाध्यता रखी है वही संविधान बिना डिग्री के पत्रकारिता करने का भी प्रावधान रखा है क्या,वह कानून के अधिवक्ता होने के बाद भी उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी या नहीं है की अनुच्छेद 19 (ए) पत्रकारिता करने के लिए बना हुआ है पर शायद इस बात से खुद कानून के जानकार अधिवक्ता भी इस ज्ञान से कैसे अछूते रह गए,दूसरा पहले ऐसा नोटिस किसी अधिवक्ता का देखा जिसमें अधिवक्ता का पूरा पता नहीं था यहां तक कि उनके कार्यालय का पता भी नहीं था और निवास का पता भी नहीं था उन्होंने अपने पता में सूरजपुर के जिला न्यायालय को ही बता दिया क्या सभी अधिवक्ताओं का पता जिला न्यायालय होता है या फिर यह अधिवक्ता महोदय कुछ हड़बड़ी में नोटिस बना रहे थे या फिर तहसीलदार साहब का बचाव कर रहे थे?
न्यायालय भी देता है समाचार प्रकाशन पर स्वतंत्रता का अधिकार
जब सूत्रों व जनचर्चा के माध्यम से जानकारी अखबार समूह के पास पहुंची तब अखबार ने निष्पक्षता के साथ खबर प्रकाशित कर जागरूकता के साथ संबंधित विभाग को जानकारी देने काम किया,वहीं खबर प्रकाशन से नाराज होकर तहसीलदार साहब जैसे लोक सेवक अपना मूल कर्तव्य नहीं निभाने वाले लोग समाचार से आक्रोशित होकर वकीलों की शरण मे जातें हैं और समाचार के विरुद्ध संवाददाता को अधिवक्ता के माध्यम से वैधानिक नोटिश जारी करवाते हैं,इन सभी विषयों के बीच दो बातें महत्वपूर्ण हो जाती हैं जिसमें एक तरफ खबर से आक्रोशित तहसीलदार का आक्रोश है और वह जायज भी है क्योंकि सच सुनने की क्षमता शायद उनमे न रही हो,वहीं विडंबना यह कि उनके अधिवक्ता अपने मुवक्किल के लिए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को ही वैधानिक नोटिश जारी कर एक तरह से बांधने का प्रयास करते नजर आते हैं,जबकि शायद उन्हें भी नहीं मालूम उनका वैधानिक नोटिश स्वमेव निरस्त भी हो सकता है,तथ्यों के आधार पर समाचार प्रकाशित करने का अधिकार समाचार प्रकाशित करने का दायित्व निभाने वाले लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के किसी भी प्रहरी के पास सदैव उपलब्ध रहने वाला अधिकार है,वहीं वह इससे खुद को वंचित भी नहीं रखना चाहेगा,चंद शुल्क प्राप्ति की लालसा में किसी के अधिकारों से ही उसको वंचित करने का यह नोटिश स्वरूप का हथियार कहीं इसे चलाने वाले पर ही उल्टा प्रहार करने वाला न साबित हो जाये? यह ऐसा करने से पहले सोचना ऐसे लोगों के लिए जरूरी है। लोकतंत्र में चौथे स्तंभ का अधिकार मिला हुआ है स्वतंत्र होकर निष्पक्ष होकर समाचार प्रकाशन का वह समाचार प्रकाशित करने का दायित्व निभा रहा संपादक व संवाददाता निभाता रहेगा वहीं ऐसे किसी नोटिस का जवाब भी दिया जाता रहेगा जो सच को झूठ के बल पर दबाने के प्रयासों वाला होगा।
विद्वान अधिवक्ता ने प्रेस को ही सूचना के अधिकार का नोटिस थमा दिया, क्या प्रेस सूचना के अधिकार अधिनियम से बंधा हुआ है?
तहसीलदार शिवनारायण राठिया के विद्वान अधिवक्ता ने प्रेस से ही सूचना के अधिकार अधिनियम अंतर्गत जानकारी मांग ली है, प्रेस न शासकीय संस्था है और न अनुदान प्राप्त संस्था, सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के जानकार बताते हैं कि प्रेस दोनों श्रेणी में नहीं आता और वह जानकारी प्रदान करने बाध्य नहीं है, दैनिक घटती घटना कानून का ऐसा जानकार समूह नहीं है जो विद्वान कानून का कहा जाए,लेकिन कानून के जानकारों का कहना है कि प्रेस से सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 का वास्ता जानकारी देने के हिसाब से नहीं है, अब तहसीलदार साहब के विद्वान अधिवक्ता से सवाल यदि प्रेस सूचना के अधिकार अधिनियम से बाध्य है तो विद्वान अधिवक्ता कृपया वह नियम प्रस्तुत या उपलब्ध कराएं जिससे उन्हें जानकारी प्रदान की जा सके,वैसे क्या ऐसा सब कुछ करके विद्वान अधिवक्ता अपनी किरकिरी कराना चाहते हैं क्या? विद्वान अधिवक्ता क्या खुद अनभिज्ञ हैं कानून की धाराओं से नियमों से?वैसे प्रेस पर सूचना के अधिकार अधिनियम का दबाव क्या अधिवक्ता साहब इसलिए डाल रहे हैं कि वह डरा सकें स्वतंत्र आवाज को। अधिवक्ता साहब को यह तो स्पष्ट दस्तावेज प्रदान करना चाहिए कि प्रेस सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 अनुसार जानकारी प्रदान करने के लिए बाध्य है।


आवाज़ दबाने की कोशिश
प्रभावित पत्रकार ओंकार पाण्डेय ने इसे अपनी आवाज़ दबाने की कोशिश बताया,उन्होंने कहा, यह नोटिस मुझे डराने के लिए भेजा गया है, वकील ने जानबूझकर अपने असली पते की जगह न्यायालय का पता इस्तेमाल किया है ताकि नोटिस में ज्यादा वजन दिखे,मैं इस नोटिस से डरने वाला नहीं हूँ और इस मामले की शिकायत बार काउंसिल में करूँगा।


विधि व्यवसाय का आधार है कि तथ्यों की गहराई में जाना और सत्य को परखना:राजेश सोनी
अखिल भारतीय पत्रकार सुरक्षा समिति भारत सूरजपुर जिलाध्यक्ष राजेश सोनी ने कहा की विधि व्यवसाय का आधार है कि तथ्यों की गहराई में जाना और सत्य को परखना,परंतु जब कोई अधिवक्ता बिना समाचार पढ़े,बिना तथ्यों की जांच किए प्रतिक्रिया दे,तो यह आचरण स्वयं उसकी पेशेवर समझ पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। क्या यह उचित नहीं होगा कि अधिवक्ता साहब पहले समाचार का अध्ययन करें, फिर अपनी प्रतिक्रिया दें, ताकि न्यायिक मर्यादा और पत्रकारिता दोनों की गरिमा बनी रहे?”


पत्रकारिता का धर्म है सत्य को प्रकाशित करना, और अधिवक्ता का धर्म है सत्य को समझना: रवि सिंह
दैनिक घटती-घटना के विशेष संवाददाता रवि सिंह ने कहा कि कानून का तकाज़ा है तथ्य परखने का,न कि बिना समझे चाँद पैसों के लिए नोटिस पत्रकारों को थामने देने का,जब कोई अधिवक्ता अपने मुवक्किल की प्रकाशित खबर को बिना पढ़े निष्कर्ष दे दे,तो यह उस नौसिखिए तहसीलदार की तरह प्रतीत होता है जो आदेश से पहले दस्तावेज़ देखना भी उचित नहीं समझता, ऐसे में अधिवक्ता स्वयं ही अपनी समझ और परिपम्ता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर देते हैं मानो खुद को नौसिखिया अधिवक्ता घोषित कर रहे हों? पत्रकारिता का धर्म है सत्य को प्रकाशित करना और अधिवक्ता का धर्म है सत्य को समझना,जब दोनों में से कोई अपनी जि़म्मेदारी भूल जाए, तब यही सवाल समाज में बोलता सवाल बनकर गूंजता है।
इस घटना ने न केवल कानूनी विशेषज्ञों के बीच, बल्कि पत्रकारिता जगत में भी बहस छेड़ दी…
एक कानूनी प्रक्रिया में अनियमितता का मामला सामने आया है,जहां एक स्थानीय अधिवक्ता ने मानहानि के एक नोटिस में अपने कार्यालय या निवास के पते के बजाय सूरजपुर जिला न्यायालय का पता इस्तेमाल किया है। यह नोटिस एक स्थानीय पत्रकार को भेजा गया है, जिसने अधिवक्ता के इस कदम को कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग और डराने की कोशिश बताया है। इस घटना ने न केवल कानूनी विशेषज्ञों के बीच, बल्कि पत्रकारिता जगत में भी बहस छेड़ दी है,स्थानीय पत्रकार ओंकार पाण्डेय को हाल ही में मानहानि का एक नोटिस मिला,यह नोटिस अधिवक्ता सूर्य प्रकाश साहू की ओर से भेजा गया है,जो कथित तौर पर पत्रकार द्वारा प्रकाशित एक खबर से व्यथित हैं, नोटिस में अधिवक्ता सूर्य प्रकाश साहू अपने नाम के नीचे जिला एवं सत्र न्यायालय, सूरजपुर का पता लिखा हुआ है।
कानूनी विशेषज्ञों की राय
कानूनी मामलों के जानकारों के अनुसार,यह कदम पेशेवर नैतिकता के खिलाफ है, अधिवक्ताओं के लिए बनाए गए नियमों के तहत,नोटिस में उनका पूरा नाम,पंजीकरण संख्या और स्पष्ट कार्यालय या निवास का पता होना अनिवार्य है। अधिवक्ता को न्यायालय परिसर का पता अपने निजी पत्राचार के लिए इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि यह एक सार्वजनिक स्थान है। एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया,ऐसा करना कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन है। इससे प्राप्तकर्ता को यह आभास हो सकता है कि न्यायालय स्वयं इस नोटिस से जुड़ा है, जो कि पूरी तरह गलत है। यह वकील के पेशेवर आचरण पर भी सवाल खड़े करता है।
केरल उच्च न्यायालय ने समाचारों के प्रकाशन की स्वतंत्रता पर 2020 में दिया था फैसला
संपादक व संवाददता के विरुद्ध दर्ज एक मामले में 2020 में केरल उच्च न्यायालय का स्पष्ट आदेश जारी करते हुए प्रकरण को ही निरस्त कर दिया गया था जिसमें समाचार के प्रकाशन पर कार्यवाही की मांग की गई थी,माननीय केरल के उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि संपादक संवाददाता किसी तथ्य या शिकायत पर समाचार प्रकाशन के लिए स्वतंत्र हैं और उनका यह अधिकार किसी आरोप को जो समाचारों से सम्बंधित हो से जोड़कर बांधा नहीं जा सकता।
क्या सवाल करना लोकतंत्र में अधिकार नहीं अधिवक्ता साहब?
तहसीलदार शिवनारायण राठिया के अधिवक्ता से एक सवाल है की क्या सवाल करना लोकतंत्र में अधिकार नहीं है? जबकि सवाल करने वाला खुद लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की जिम्मेदारी निभा रहा है। अधिवक्ता ने पत्रकार को वैधानिक नोटिस जारी कर यह भी कहा है की पत्रकार अनुचित लाभ चाहता है जबकि इसका कोई सबूत उनके पास है नहीं है, तहसीलदार शिवनारायण राठिया के अधिवक्ता के पास कुल मिलाकर पत्रकार को एक तरह से डराने और बांधने के लिए कानूनी नोटिस भेजा गया है जिससे वह तहसीलदार शिवनारायण राठिया के कार्यप्रणाली खिलाफ खबर का प्रकाशन न करे जबकि पत्रकार खबर का प्रकाशन तब तक करता रहेगा जब तक की तहसीलदार शिवनारायण राठिया के खारिज के आदेश की जांच न हो जाए।
अधिवक्ता साहब जिस खबर की बात कर रहे हैं उस खबर में घटती-घटना ने समाचार का परीक्षित स्वर और चेतावनी लिखी थी…
अधिवक्ता ने तहसीलदार शिवनारायण राठिया के नोटिस में खबरों का उल्लेख किया है जिसके आधार पर उन्होंने तहसीलदार शिवनारायण राठिया के लिए उसकी तरफ से पत्रकार को नोटिस भेजा है जबकि अधिवक्ता जिन खबरों के आधार पर नोटिस भेज रहे हैं उसमें यह भी लिखा है की घटती-घटना खबर रिपोर्ट आवेदिका के दावों और स्थानीय स्रोतों पर आधारित है। हमारी रिपोर्ट का उद्देश्य किसी व्यक्ति को बिना प्रमाण बदनाम करना नहीं है पर सार्वजनिक हित में यह आवश्यक है कि रेवेन्यू विभाग और शासन-स्तर पर यह स्पष्ट किया जाए कि क्या ऐसे आरोप सत्य हैं और किस तरह की सुधारात्मक कार्रवाई की जाएगी। जब तक त्वरित और पारदर्शी जांच नहीं होती, तब तक जमीन मालिकों का भरोसा बहाल नहीं हो पाएगा,पर सायद आप ने उसे पढ़ा नहीं।
क्या बार एसोसिएशन में तहसीलदार के अधिवक्ता की शिकायत की जानी चाहिए?
मामले में कुछ संपादकों व संवाददाताओं का कहना है कि ऐसे अधिवक्ताओं का जो समाचारों के प्रकाशन पर नोटिस जारी कर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बाधित करने का प्रयास कर रहें हैं कि शिकायत बार एसोसिएशन में की जानी चाहिए,वहीं इसके लिए तैयार किये जाने की बात भी रखी गई। तहसीलदार के अधिवक्ता क्या उनकी गलत जानकारी पर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को डराने का काम कर रहे हैं? जिस वजह से तहसीलदार की गलत जानकारी में उन्होंने पत्रकार को वैधानिक नोटिस भेजी है? क्या अधिवक्ता सब भूल गए कि पत्रकार को जांच करने का अधिकार है क्या? यदि पत्रकार को अधिवक्ता साहब जांच करने का अधिकार दिला दें तो पत्रकार ही पूरे मामले की जांच करके बता देगा कि तहसीलदार का पूरा मामला खारिज करने का तरीका अवैध है, क्या एक अधिवक्ता के खिलाफ शिकायत दर्ज करने के लिए स्टेट बार काउंसिल एक उपयुक्त फोरम है, स्टेट बार काउंसिल शिकायत प्राप्त होने पर,या अपने स्वयं के प्रस्ताव पर,उस अधिवक्ता के खिलाफ दुराचार का मामला अपनी अनुशासन समितियों में से किसी एक के पास दर्ज कर सकती है,यह देखना होगा कि राज्य बार काउंसिल इस मामले में क्या कार्रवाई करती है? पत्रकार द्वारा शिकायत दर्ज कराने के बाद,बार काउंसिल की अनुशासनात्मक समिति इस पर विचार करेगी? यदि अधिवक्ता को दोषी पाया जाता है, तो उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जा सकती है? जिसमें निलंबन भी शामिल हो? इस घटना ने एक बार फिर यह मुद्दा उठाया है कि कानूनी प्रक्रिया का पालन सही तरीके से होना कितना महत्वपूर्ण है और इसका दुरुपयोग करने वालों पर कड़ी कार्रवाई क्या नहीं होनी चाहिए? पत्रकार ने कानूनी सलाह लेना शुरू कर दिया है और इस मामले पर कानूनी लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रहे हैं।


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