लेख@चमचों जैसे इंसानी शक्ल के कागजी शेर

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आजकल जहाँ देखो वहां हरेक नेता,विभाग प्रमुख, समाज प्रमुख,घर प्रमुख से लेकर हर मुख को चम्मच की आवश्यकता होती है,और बिना चम्मच के सब अधूरे है। चम्मच असल में सामान्य से लेकर बहुमूल्य धातु की हुआ करती थी जिसमें राजे महाराजे पूंजीपति सोने-चांदी की चम्मच से सामान्य व्यक्ति तांबे-पीतल की चम्मच से और गरीब व्यक्ति लोहे स्टील की चम्मच से अपना जीवन गुजर बसर कर लिया करते थे। आज धातुओं की चम्मच का समय बीत गया और उनकी जगह जीते जागते इंसान ने ले ली और खुद को एक अच्छी और कुशल चम्मच-चमचा के रूप में प्रतिष्ठित कर लिया है और जो चम्मचों के प्रभाव को जानने समझने लगे वे अब खुद को सम्पूर्ण रूप से चमचा बनाने पर तुल गया है। कानूनन जो काम गैरकानूनी है,वह हम जानबूझकर कानून के संरक्षण में करते है, विशेषकर संविधान की शपथ लेकर हमारे नेता संविधान को नहीं मानते है और हर जगह हर विभाग में चमचों की शक्ल में हमारे सांसद और विधायक सहित अन्य निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के द्वारा अपने किसी एक कार्यकर्ताको प्रतिनिधि बनाकर एक कागज़ थमा दिया जाता है जो इनका कागजी शेर अर्थात प्रतिनिधि होता है। देश का संविधान या कानून का विधान कानूनन रूप से इन जनप्रतिनिधियों की गैर मौजूदगी में उस समय के लिए इन प्रतिनिधित्व का अधिकार देता है की उनकी अनुपस्थिति में उसी समय के लिए उनका कागजी प्रतिनिधि इनका पक्ष रख सकेगा किन्तु एक बैठक हेतु अधिकृत किये जाने के उस पत्र को जारी करने वाले नेता के सम्पूर्ण कार्यकाल का पट्टा मान ये कागजी शेर दहाड़ना शुरू कर राजपाट सँभालने लग जाते है। यह ठीक वैसी ही बात हुई जब हमार पूर्वजों के समय भारत देश सोने की चिçड़या हुआ करता था आज के इन नेताओं की इन्ही करतूतों के कारण अब भारत मिटटी की चिçड़या भर बनकर रह गया है। एक जमाना था जब इन्सान की शक्ल उसकी अक्ल की गवाही ही नहीं बल्कि उसके कार्य क्षेत्र का परिचय भी देती थी और शक्ल देखकर लोग पहचान लेते थे की अमुक व्यक्ति अमुक विभाग का है, या अमुक काम करता है। शक्ल के साथ इंसान का पहनावा भी उसकी पहचान का हिस्सा था जिससे व्यक्ति की जात-बिरादरी, कुल-खानदान का पता भी चल जाया करता था किन्तु आज के इंसान की शक्ल में इंसान इंसानियत खो चुका है और जहा देखते है सर्वत्र इंसानी शक्ल में चमचे ही चमचे दिखाई देते है जिनकी आस्था जिनका ईमान और जिनका धर्म बस चमचागिरी है। वे चमचागिरी करने से पहले खुद को एक अच्छे चम्मच के रूप में ढाल लेते है, जिन इंसानों की कमर पीठ आपस में मिल रही हो और वे 380 कोण तक झुकने में माहिर हो समझिये वे कुशल और श्रेष्ठ चमचे है। आजकल चमचो को जानना पहचानना बड़ा मुश्किल हो गया है, कि जो व्यक्ति मेरे साथ है, मेरी हाँ में हां मिलाकर मुझे प्रोत्साहित कर रहा है क्या सच में वह मेरे प्रति निष्ठावान है या किसी की चमचागिरी कर उसके इशारे से मुझे शूली पर चढ़ा रहा है। असल में चमचागिरी इतनी व्यापक और विस्तारित हो गई है जहाँ अपने साथ रहकर अपने से प्रेम जता रहे लोग, सच में अपने साथ है या प्यार जताकर वे अपने विरोधी खेमे से पहचान कर पाना मुश्किल हो गया है। इन चमचों की विशेषता होती है की ये आपके साथ रहते ही आपका कलेजा निकालते समय उफ़ तक न करे और आपको पता तक न चलने दे की कलेजा निकाल लिया है। ये चमचे अपने मालिक के बफादार होते है और आपकी निष्ठां की कसम खाने के साथ चमचागिरी की मिशल प्रस्तुत कर आपकी प्याज रोटी चबाकर प्रशंसा के किले खड़े कर दे और और मन ही मन आपके डाइनिंग टेबल – ट्रे ओर घर-दालान बगीचे आदि को हजम करने का षड्यंत्र लिए आये है,जबकि आपको यह पता भी नही की ये शहर की सड़कों -पुलों को निगलने के बाद डकार तक नहीं लेते है। जिन्हें दुश्मन देश का एजेंट की भाँती अपने दुश्मन की कतार में शुमार समझना चाहिए,आप यह न कर चुक कर रहे होते है। क्या यह हमारे लिए गंभीर प्रश्न ही नहीं अपितु गंभीर समस्या नहीं है कि जिसे आप अपना मान रहे हो असल में वह अपने आका के लिए चम्मचागिरी कर हमारे प्यार को ठुकुराकर गद्दारी का तमगा लेने की दिशा में सफल होने जा रहा है। चमचागिरी करने वाले चम्मच बड़े से बड़े रुतवे इनाम में पाते रहे है, आपके लिए उसकी चमचागिरी गद्दारी हो सकती है किन्तु यही गद्दारी का मिथक ओपन न होने की स्थिति में वह इन्सानी शक्ल कुशल चमचे को मात देकर अपने चमचे जैसी शकल को साबित कर चुकी होती है, यह तो आपका दुर्भाग्य है की आप दुसरे के चमचे से मात खा चुके होते है। चमचागिरी से अनेकों को पत्रकार बनते देखा है पर वे पत्रकारभर है, उन्हें लिखना नहीं आता, किन्तु वाक्पटुता में वे नटवरलाल को मात देकर चीन अमेरिका जैसे देशों को भी अपनी बपौती बताकर बेचने में दक्ष है इसलिए वे अपने मुख मियामिट्ठू होते है और लिखने के लिए इमानदार चम्मच जो मिल जाया करते है। आप अच्छे लेखक, पत्रकार हो सकते है लेकिन चमचागिरी करने वालों के लिए आपकी औकात गेहूं की कटाई में गिरे हुए उस चने से ज्यादा नहीं हैं जो मिट्टी में गिरने के बाद मिटटी का भी हिसाब करने को बाध्य है। उन चम्मच पत्रकारों के रुतवे और उन्हें मिलने वाले तमगो की एक ठोकर भर आपके अस्तित्व को मिटटी में धसा देगी,आपके पाले हुए भ्रम रेगिस्तान में पानी को तरसते हिरण को दौड़ते दौड़ते थका कर बिन पानी प्राण त्यागने से ज्यादा कुछ नहीं है।
आप अपने आसपास देखिये, जहाँ नजर जायेगी आपको चमचे ही चमचे दिखेंगे,कोई प्रधानमंत्री या मंत्री का,कोई मुख्यमंत्री या उनके मंत्री का, कोई सांसद या विधायक का, कोई जिला प्रशासन या शासन का,कोई अदालत या पुलिस थाने का हर विभाग में चाहे वे सरकारी हो या गैर सरकारी सभी जगह,बस स्टैंड पर,अस्पताल में, होटलों में, पार्कों में सौ-सौ, पांच- पांच सौ रूपये के नोटों की गड्डियाँ लिए हाथों में डायरिया या मोबाइल के साथ चित्र खींचते,रिपोर्ट भरते चमचे मिल जायेंगे जो खुदका और अपने आकाओं का अपनी मूल सेवा से हटकर परदे के पीछे की सेवाओं के प्रदाता के रूप में काम करते मिल जायेंगे। असल में चमचों के इस ढेर में जो लुट खसूट के सरगना है वे किसी मंदिर में,ट्रस्ट में, सामाजिक सेवाओं के केन्द्रों में डाकू के स्थान पर सेवक के रूप में अपनी इंसानी शक्ल को चमचे में ढालें हुए होते है ताकि डाकू की शक्ल दिहाड़ी काम करने वाले मजदूर से मेच कराई जाकर शैतानी शक्ल को बारूदीबम के खोल से मुक्त कर चमचे के रूप में घोषित कर दी जाए, जनता का क्या है नेता की शक्ल पर पहनावे पर वह खान ध्यान रखती है, बस कानों में घोषणा सुनाई भर जाए घोषणा ही उसके लिए संजीवनी बूटी का काम करती है, जनता को जनता की शकल प्यारी लगती है ,चमचों जैसे लोग की जनता परवाह नही करती है। असल में चमचो और चमचों जैसी इंसानी शक्ल का जोर तब तक रहेगा जब तक इस शक्ल का नकाब उतरने के बाद जनता उसे देख नहीं लेती है तब तक इन सिरफिरे चमचों का इतिहास पहाड़ों-किलों की दीवारों पर लिखा जाता रहेगा। इन चमचों ने अलंकारों के दिए हुए ओवरकोट पहने है, जिनके पास खुद अपनी योग्यता का कुछ भी नहीं,सिवाय दूसरों की सुहाग सेजों पर खुद सोने की तड़फ को पूरा करने में ये शैतान के बाप है और इनकी जिन्दगी कैदखाने की सिफारिश होनी चाहिए किन्तु ये कैद को रम व्हिस्की की तरह पीकर आज को कल में बदल ख़ुशी में जीते है। इनकी हर रात बिस्तर में सोते समय पायजामे-शलवार की गांठे खुली होती है और उठते है तो बकरी की तरह कमजोर दुर्गन्ध से भरे होते है, जब ये अपने-आपको मृत पड़ा देखते हैं तो जिंदगी को याद में लाने के लिए तिकड़म लड़ाते हैं। इन चमचों के लिए अब कहने के लिए कुछ भी बाकी नहीं, तय करने के लिए कुछ भी बचा नहीं जैसे शब्द इनके लिए नपुंसक हो गए हों और एक एक कदम इनके लिए बाँझ हो गए हों, हम इन चमचों के इतिहास का गुणगान कैसे करे जबकि अगला कदम रखने के लिए इनके पास जमीन तक न हो,किन्तु ये चमचे आज न चाहते हुए भी हमारी संस्कृति का अंग बन चुके है। आप हो या हम इन चमचों के बिना सभी अधूरे है,हमारे पास हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधि है,हमारा प्रशासन है और इनके पास अधिकृत चमचे है,इन्सान की शक्ल में ढलते चमचे, तिकड़मबाज और दुर्गन्ध से भरे चमचे जो सिर्फ कागजी शेर है, एक कागज़ पर प्रतिनिधि शेर अब खूंखार हो चुके है जिन्हें जंगलों में होना था वे शहर में खुलेआम शिकार कर रहे है और मजे से शिकार में हिस्साबांटी का कभी न ख़त्म होने वाला खेल चल रहा है, जिसका अंत दिखाई नहीं देता है।


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