
अश्लीलता की रील संस्कृति पर एक सवाल
हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ स्क्रीन पर दिखना असल में जीने से ज़्यादा जरूरी हो गया है। जहां जç¸ंदगी कैमरे के फ्रेम में सिमट गई है, और इंसान का मूल्य उसके लाइक, फॉलोवर और व्यूज़ से तय होता है। इसी डिजिटल होड़ में स्ति्रयों की अभिव्यक्ति भी एक अजीब मोड़ पर आ खड़ी हुई है—जहां रील बनाना कोई बुरा काम नहीं, लेकिन रील के बहाने स्त्री की गरिमा और उसकी सामाजिक छवि का बेशर्म चीरहरण किया जा रहा है। जिम,मॉल,सड़क, बाथरूम और बेडरूम—हर कोना अब कंटेंट स्टूडियो बन चुका है। कुछ लड़कियाँ सोशल मीडिया पर जिस तरह की अश्लील और भद्दी रील्स बना रही हैं, वह केवल खुद की नहीं, समूची नारी जाति की गरिमा पर धब्बा बन रही है। क्या आपको सच में लगता है कि महज वायरल हो जाने से कोई ताक¸तवर बनता है? एक औरत के पास उसकी सबसे बड़ी पूंजी उसका आत्मसम्मान और विवेक होता है। आज जो लड़कियाँ एक्सरसाइज के नाम पर ऐसे कपड़े पहन रही हैं कि देखना भी शर्मिंदगी पैदा करे, वे शायद यह नहीं जानतीं कि वे नारी मुक्ति नहीं बल्कि नारी बाजारीकरण का प्रचार कर रही हैं। शरीर दिखाकर पहचान बनाना कोई गर्व की बात नहीं। अगर रील्स ही बनानी हैं,तो क्यों न ऐसी रील बनाओ जिसमें आपकी कला, मेहनत, सोच और संवेदना झलके? आज हर तीसरी रील में पिछवाड़ा फ्रेम के बीच में है, कैमरा कमर पर ज़ूम करता है, और कैप्शन होता है — क्लासी एंड सेक्सी! क्या यही स्त्री की परिभाषा बनती जा रही है? स्त्री आंदोलन कभी इस उद्देश्य से नहीं चला था। हमने शिक्षा, समानता, आज़ादी और आत्मनिर्भरता की लड़ाई लड़ी थी, न कि मंच पर खड़े होकर अंग प्रदर्शन की। जो लोग कहते हैं, ये स्ति्रयों की आज़ादी है,उनसे पूछिए—क्या शरीर को उत्पाद बनाना आज़ादी है या आधुनिक गुलामी? और यह दोष सिर्फ उन लड़कियों का नहीं है जो ऐसी रील्स बनाती हैं। यह समाज का भी अपराध है—खासतौर पर पुरुषों का। यही पुरुष ऐसी वीडियो पर मिलियन-मिलियन व्यूज देते हैं, लाइक ठोकते हैं, फिर कमेंट में नैतिकता का भाषण भी पेलते हैं। एक ही वीडियो में पुरुष की आँखें भी डोलती हैं और उंगलियाँ भी नैतिकता टाइप करती हैं। यह दोगलापन बंद होना चाहिए।सोचिए, क्या होगा जब कोई छोटी बच्ची यह सब देखकर बढ़ेगी? जब वह देखेगी कि ज़्यादा अंग दिखाने वाली को ज़्यादा लाइक मिलते हैं, तो वह किस दिशा में जाएगी? यह रील संस्कृति, स्त्रीत्व को छीनने की चुपचाप होती साजिश है। डिजिटल ग्लैमर की इस दौड़ में हम स्त्री को फिर से उस स्थान पर ले जा रहे हैं जहाँ उसे सिर्फ देखे जाने की वस्तु बना दिया गया था। आज़ादी की सही परिभाषा वो होती है जिसमें स्त्री खुद के लिए जीती है,न कि समाज के क्लिकबाज़ी वाले बाजार के लिए। एक लड़की सुंदर हो सकती है,फैशनेबल भी, लेकिन क्या ज़रूरी है कि वह हर बार अपनी देह को ही सेल करे? क्या सोच, क्या विचार, क्या चरित्र, क्या संघर्ष—ये सब सिर्फ उपन्यासों की बातें रह गई हैं? दूसरी तरफ, जिन प्लेटफॉर्म्स को समाजिक सुधार का औजार माना गया था—जैसे इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक—उन्हें हमने डिजिटल कोठा बना डाला है। यह केवल सरकार की असफलता नहीं है, बल्कि हम सब की चुप्पी का परिणाम है। यह लड़ाई सिर्फ महिलाओं की नहीं,बल्कि हर उस इंसान की होनी चाहिए जो एक स्वस्थ, गरिमामय,और नैतिक समाज की कल्पना करता है। जो चाहता है कि उसकी बेटी, बहन, दोस्त या पत्नी डिजिटल दुनिया में अपने टैलेंट से पहचानी जाए, न कि अपनी कमर के घुमाव से।अब समय आ गया है कि स्ति्रयाँ खुद आगे बढ़कर कहें—बस बहुत हुआ। रील्स बनानी हैं, बनाओ, लेकिन सोच से बनाओ। डांस करो, पर आत्मा से—नॉट कैमरे की भूख से।हंसाओ, सुनाओ,सिखाओ,जोड़ो—क्योंकि स्त्री सिर्फ आकर्षण नहीं, प्रेरणा होती है।
और पुरुषों से भी यही कहना है—अब अपने क्लिक से समाज को मत चलाओ। अगर अश्लीलता बंद करनी है, तो उसे देखना बंद करो।रील्स वायरल तब होती हैं जब उन्हें देखे जाने वाले आंख मूंद लेते हैं और दिल खोल देते हैं। एक बात और—जो लड़कियाँ यह सोचती हैं कि लोग उन्हें पसंद कर रहे हैं, वे ये समझें कि पसंद और उपभोग में फर्क होता है।
एक को देख कर सम्मान मिलता है, दूसरे को देख कर हवस जागती है। आप खुद तय करें, आप कौन सी नज़रों में आना चाहती हैं?
शायद अब वक्त है एक नई डिजिटल क्रांति का,जहाँ स्त्री के हाथ में मोबाइल हो—पर कैमरे के सामने न शरीर,बल्कि विचार हों। रील में न खोओ बहना, सोच को आवाज़ दो,जो तुम हो भीतर से, वही असली साज़ दो बदन की नहीं,बुद्धि की बनाओ पहचान,यही है स्त्री की सबसे ऊँची उड़ान!
प्रियंका सौरभ
आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)