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सरगुजा/एमसीबी@क्या प्रशासन की दादागिरी से बिगड़ती है कानून व्यवस्था?

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-आजाद कलम-
सरगुजा/एमसीबी 03 दिसम्बर 2024 (घटती-घटना)। हर बार जनता ही या आम आदमी गलत नहीं होता,कई बार प्रशासन की दादागिरी भी कानून व्यवस्था को खराब करती है और ऐसा कई बार देखा भी गया है हाल ही में ताजा मामला मनेंद्रगढ़ का भी कुछ ऐसा ही है, जब सिर्फ एस्बेस्टस सीट को हटाने को लेकर तहसीलदार ने व्यापारी की बात नहीं मानी और उसे अपना पावर दिखाया,इसके बाद व्यापारी ने भी अपना आपा खाया और तहसीलदार पर हाथों से घूंसा चलाया, व्यापारी का नुकसान तीन चार लाख का बताया जा रहा है वही व्यापारी का कहना है कि इसकी कोई सूचना नहीं दी गई थी कि उसे एस्बेस्टस सीट हटाना है और उसके बावजूद भी तहसीलदार से व्यापारी ने कुछ घंटे की मोहलत मांगी,पर तहसीलदार अपना पावर दिखाते हुए व्यापारी को गाड़ी में बैठाये आगे तक लेकर गए और फिर एक फोन आया उसके बाद तहसीलदार ने कहा चलो काम हो गया,जैसे ही व्यापारी वहां पहुंचा तो देखा कि उसके नए एस्बेस्टस सीटों को तहसीलदार ने जेसीबी से तुड़वा दिया था,इसके बाद व्यापारी गुस्से में आग बबूला हो गया और तहसीलदार पर चला दिया घुसा जो उसे नहीं करना था…क्योंकि ऐसा करना कानून की दृष्टिकोण से सही नहीं है…पर सवाल यह उत्पन्न होता है की क्या प्रशासन की दादागिरी ही कानून व्यवस्था को बिगाड़ रही है? और प्रशासन को दादागिरी करने की छूट कौन दे रहा है? क्या यह वर्तमान सत्ता ही है जो छूट दे रही है? क्योंकि यह बात इसलिए हो रहा है क्योंकि 3 महीने पहले भी कुछ ऐसा ही दृश्य सरगुजा के अंबिकापुर में देखा गया था, जब एक अखबार के संस्थान पर बुलडोजर कार्यवाही की गई थी, वह भी इसलिए क्योंकि वह लगातार शासन प्रशासन की कमियों की खबर प्रकाशन कर रहा था, बस यही उसे अखबार का कसूर था, जिस वजह से प्रशासन को दादागिरी दिखानी पड़ी, पर संस्थान के मालिक ने वह काम नहीं किया जो मनेंद्रगढ़ के व्यापारी ने किया, करोड़ को नुकसान होने के बावजूद भी संस्थान के संपादक ने धैर्य बनाए रखा और अपने नुकसान को सहने की हिम्मत बनाए रखा और कानूनी प्रक्रिया से लड़ने का अधिकार रखा, जो आज कहीं ना कहीं मिसाल है जो इस घटना के बाद लोगों के जुबान पर आ रहा है। आज हम एक ऐसी घटना की चर्चा कर रहे हैं, जो प्रशासन और पत्रकारिता के रिश्तों को कठघरे में खड़ा करती है।
संपादक और उनके अखबार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्भीकता से आवाज उठाई। इस सच्चाई को उजागर करने की कीमत उन्हें प्रशासनिक प्रताड़ना के रूप में चुकानी पड़ी। अखबार पर पहले तो विज्ञापनों की रोक लगाई गई, फिर जब उन्होंने ‘कलम बंद अभियान’ शुरू किया, तो प्रशासन ने उनके प्रतिष्ठान पर बुलडोजर चलाने का अनुचित कदम उठाया। नोटिस के लिए पर्याप्त समय दिए बिना उनकी वर्षों की मेहनत को मिट्टी में मिला दिया गया। इसके बावजूद,संपादक ने धैर्य और संयम का परिचय देते हुए विरोध केवल अपनी कलम के जरिए दर्ज कराया। यह घटना न केवल प्रशासन की कार्यशैली बल्कि पत्रकारिता की आज़ादी पर भी बड़ा सवाल खड़ा करती है। प्रश्न यह है कि अगर किसी अधिकारी ने गलत किया है, तो क्या कानून को अपने हाथ में लेना उचित है? उचित प्रक्रिया के तहत शिकायत करना और न्यायिक माध्यम अपनाना ही सही रास्ता है। वैसे मनेंद्रगढ़ या अन्य ऐसे मामलों में जहां प्रशासनिक जल्दबाजी या मनमानी सामने आती है वहां भी प्रशासन को यह ध्यान देना चाहिए, कि जबतक लोगों में न्याय के लिए न्यायालय का भरोसा जिंदा है जैसा अविनाश सिंह ने भरोसा जताया कानून और न्यायालय पर तब तक तो अन्याय करके प्रशासन बचा हुआ है आक्रोश से जिसके प्रति मनमानी या अन्याय हुआ है वहीं जैसे ही न्याय का भरोसा साथ ही संयम टूटा मनेंद्रगढ़ जैसी घटना घटनी तय है, इसलिए प्रशासन को यह ध्यान रखना चाहिए कि न्याय और कानून के प्रति आम लोगों का विश्वास कायम रहे, कोई भी ऐसे कार्य को प्रशासनिक अधिकारी अति उत्साह में अंजाम न दे, जिससे कोई व्यक्ति कानून के प्रति ही न्याय और न्यायालय के प्रति ही अविश्वास की भावना का मन में जन्म कर ले। वैसे मनेंद्रगढ़ की घटना तहसीलदार के साथ मारपीट की घटना को लेकर बताया जा रहा है कि तहसीलदार अति उत्साह में थे और वह ऐसा कुछ कर गए की उन्हें उसका खामियाजा सड़क पर सरेआम भुगतना पड़ गया और वह पिटाई के शिकार हो गए मार खा गए। मारपीट करने वाले व्यापारी को कानून सजा नियमानुसार देगा मारपीट का यह तय है लेकिन तहसीलदार की दोषपूर्ण कार्यप्रणाली वह भी पक्षपात पूर्ण कार्यप्रणाली की चर्चा अब आम है।


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