
आपातकाल नाम सुनते ही शरीर में एक अलग ही झनझनाहट शुरू हो जाती है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे चर्चित और विवादित रहे आपातकाल को 50 वर्ष बीत चुके हैं। हर वर्ष जून मास आते ही घाव पुनः गहरे हो जाते है। आपातकाल के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका भी काफी प्रभावी रही है। संघ ने आपातकाल का पुरजोर विरोध किया था। हजारों कार्यकर्ताओं को प्रताड़ना सहनी पड़ी। जेल तक की यात्रा करनी पड़ी। कार्यकर्ताओं के बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
लेख की शुरुआत कठोपनिषद के एक प्रसिद्ध श्लोक से करता हूं ;
उत्तिष्ठते जाग्रते प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गमपथा।
अर्थ है कि उठो,जागो और ज्ञानी पुरुषों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। ज्ञान प्राप्ति का मार्ग,छुरी की धार पर चलने के समान कठिन है। आपातकाल के दौरान संघ को प्रतिबंध तक झेलना पड़ा। इसके बावजूद संघ और सशक्त होकर नए रूप में देश के सामने आया।
आपातकाल के इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो कुछ बातों का पुनः स्मरण कराया जाना जरूरी हो जाता है। 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक
निर्णय सुनाया था। इसमें वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के सामने राज नारायण मैदान में थे। चुनाव परिणाम में इंदिरा गांधी को विजयी घोषित किया गया था। पराजित प्रत्याशी राज नारायण चुनावी प्रक्रिया से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल करते हुए चुनाव में अनुचित साधन अपनाने का आरोप लगाया। उनका आरोप था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का अनुचित उपयोग किया है। परिणाम उनके पक्ष में रहा। सरकार के विरुद्ध राजनीतिक अस्थिरता और विरोध प्रदर्शन का माहौल बना।
25 जून 1975 को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी। 21 मार्च 1977 तक यह लागू रहा। इस समयावधि के दौरान नागरिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया। सभी स्तर के चुनाव स्थगित कर दिए गए। सत्ता विरोधियों को बंदी बना लिया गया। प्रेस पर प्रतिबंधित लगाने के साथ साथ कुछ पत्रकार गिरफ्तार भी किए गए।
वरिष्ठ पत्रकार रहे माणिकचंद्र वाजपेयी जी ने अपनी पुस्तक आपातकालीन संघर्ष गाथा में लिखा था कि- कांग्रेस ने 20 जून, 1975 के दिन विशाल रैली का आयोजन किया। रैली में देवकांतबरुआ ने कहा था, इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय,तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय और इसी जनसभा में अपने भाषण के दौरान इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि वे प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र नहीं देंगी।
जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल का विरोध किया। उन्होंने इसे भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि कहा। माणिकचंद्र वाजपेयी लिखते हैं- जयप्रकाश नारायण जी ने रामलीला मैदान पर विशाल जनसमूह के सम्मुख 25 जून, 1975 को कहा, सब विरोधी पक्षों को देश के हित के लिए एकजुट हो जाना चाहिए अन्यथा यहां तानाशाही स्थापित होगी और जनता दुखी हो जाएगी। लोक संघर्ष समिति के सचिव नानाजी देशमुख ने वहीं पर उत्साह के साथ घोषणा कर दी, को इसके बाद इंदिराजी के त्यागपत्र की मांग लेकर गांव-गांव में सभाएं की जाएंगी और राष्ट्रपति के निवास स्थान के सामने 29 जून से प्रतिदिन सत्याग्रह होगा।
एच वी शेषाद्री की पुस्तक कृतिरूप संघ दर्शन के अनुसार सभी प्रकार की संचार व्यवस्था, यथा- समाचार-पत्र-पत्रिकाओं,मंच,डाक सेवा और निर्वाचित विधान मंडलों को ठप्प कर दिया गया। प्रश्न था कि इसी स्थिति में जन आंदोलन को कौन संगठित करे? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देश भर में शाखाओं का अपना जाल था और वही इस भूमिका को निभा सकता था। संचार माध्यमों को ठप्प करने का प्रभाव अन्य दलों पर तो पड़ा, पर संघ पर उसका प्रभाव नहीं पड़ा। अखिल भारतीय स्तर के उसके केन्द्रीय निर्णय,प्रांत,विभाग,जिला और तहसील के स्तरों से होते हुए गांव तक पहुच जाते हैं। आपात घोषणा हुई और जब तक आपातकाल चला,उस बीच संघ की यह संचार व्यवस्था सुचारू ढंग से चली। भूमिगत आंदोलन के ताने-बाने के लिए संघ कार्यकर्ताओं के घर महानतम वरदान सिद्ध हुए।
सर संघचालक बालासाहब देवरस को 30 जून को नागपुर स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। इससे पूर्व उन्होंने आह्वान किया था कि इस असाधारण परिस्थिति में स्वयंसेवकों का दायित्व है कि वे अपना संतुलन न खोयें। सर कार्यवाह माधवराव मुले तथा उनके द्वारा नियुक्त अधिकारी के आदेशानुसार संघ-कार्य जारी रखें तथा यथापूर्व जनसंपर्क, जनजागृति और जनशिक्षा का कार्य करते हुए अपने राष्ट्रीय कर्तव्य का पालन करने की क्षमता जनसाधारण में निर्माण करें। संघ कार्यकर्ताओं ने उनके आह्वान के अनुसार ही कार्य किया।
आपातकाल की घोषणा के कुछ दिन बाद 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया। लोक संघर्ष समिति द्वारा आयोजित आपातकाल विरोधी संघर्ष में एक लाख से अधिक स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। बताया जाता है कि आपातकाल के दौरान सत्याग्रह करने वाले कुल एक लाख 30 हजार सत्याग्रहियों में से एक लाख से अधिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के थे। जो 30 हजार लोग बंदी बनाए गए, उनमें से 25 हजार से अधिक संघ के स्वयंसेवक थे। जानकारों के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 कार्यकर्ता बंदीगृहों और कुछ बाहर आपातकाल के दौरान बलिदान हो गए। उनमे संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख पांडुरंग क्षीर सागर भी शामिल थे।
सत्ता पक्ष के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन को संघ के पदाधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं ने जारी रखा। मोहनलाल रुस्तगी की पुस्तक आपातकालीन संघर्ष गाथा के अनुसार जयप्रकाश नारायण ने अपनी गिरफ्तारी से पूर्व लोक संघर्ष समिति का आन्दोलन चलाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता नानाजी देशमुख को जिम्मेदारी सौंपी थी। जब नानाजी देशमुख गिरफ्तार हो गए तो नेतृत्व की जिम्मेदारी सुंदर सिंह भण्डारी को सौंपी गई। आपातकाल लगाने से उत्पन्न हुई परिस्थिति से देश को सचेत रखने के लिए तथा जनता का मनोबल बनाए रखने के लिए संघ के कार्यकर्ता तय किए गए। स्वयंसेवकों ने सत्ता की नीतियों के विरोध में सत्याग्रह किया।
9 अगस्त,1975 को मेरठ नगर में सत्याग्रह किया गया। 15 अगस्त,1975 को लाल किले पर जब प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान सत्याग्रहियों ने नारे लगाए और पर्चे वितरित किए। 2 अक्टूबर को प्रधानमंत्री के सामने महात्मा गांधी की समाधि पर सत्याग्रह किया गया। 28 अक्टूबर, 1975 को राष्ट्रमंडल सांसदों का एक दल जब दिल्ली आया था,तब कार्यकर्ताओं ने उन्हें आपातकाल विरोधी साहित्य वितरित किया। 14 नवंबर, 1975 को प्रधानमंत्री के सामने जवाहर लाल नेहरू की समाधि के पास आपातकाल के विरोध में नारे लगाए गए। 24 नवंबर 1975 को अखिल भारतीय शिक्षक सम्मेलन में पर्चे वितरित किए और तानाशाही के विरोध में नारे लगाए। 7 दिसम्बर, 1975 को ग्वालियर में महान संगीतज्ञ तानसेन की समाधि पर सत्याग्रह किया गया। उस दिन रजत जयंती के कार्यक्रम का आयोजन था। 12 दिसम्बर, 1975 को दिल्ली में स्वामी श्रद्धानंद की मूर्ति के सामने मणिबेन पटेल के नेतृत्व में महिलाओं द्वारा सत्याग्रह किया गया। बंबई की मिलों में मजदूरों द्वारा सत्याग्रह किया गया।
आपातकाल से कांग्रेस को भारी नुकसान हुआ। जनता में सरकार की छवि धूमिल हुई। आक्रोश बढ़ता गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करके चुनाव करवाने की अनुशंसा कर दी। चुनाव में स्वयं इंदिरा गांधी को अपने क्षेत्र रायबरेली से चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। इस प्रकार स्वतंत्रता के पश्चात प्रथम बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। नई केंद्र सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए निर्णयों की जांच के लिए शाह आयोग का गठन किया। शाह आयोग में अपनी रिपोर्ट में आपातकाल के दौरान हुई घटनाओं का उल्लेख करते हुए शासन व्यवस्था को हुई हानि पर चिंता व्यक्त की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आपातकाल का जमकर विरोध किया. इसके कारण उसे सत्ता के क्रोध का दंश झेलना पड़ा, किन्तु आपातकाल के दौरान संघ द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शनों ने लोगों में उसे विख्यात कर दिया. इस प्रकार लोकतंत्र की विजय घोष के साथ संघ बढ़ता गया। सोमदेव द्वारा रचित कथासरितसागर की एक प्रसिद्ध सूक्ति इसे चरितार्थ भी करती है।
अप्राप्यं नाम नेहास्ति धीरस्य व्यवसायिनः
अर्थ है कि साहसी और मेहनती व्यक्ति के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है अर्थात् जिसके पास साहस है और जो परिश्रम करता है,उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है।
सुशील कुमार ‘नवीन‘,
हिसार, हरियाणा