सम्पादकीय @ छात्रों की खुदकुशी

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उच्चतम न्यायालय ने डांटने के बाद छात्र के आत्महत्या करने के मामले में आरोपी को बरी कर दिया। पीठ ने कहा कि कोई भी सामान्य व्यक्ति यह नहीं सोच सकता कि डांटने के कारण ऐसी दुखद घटना घट सकती है। अदालत ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस आदेश को खारिज कर दिया,जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध से शिक्षक को बरी करने से इनकार कर दिया था। शीर्ष अदालत ने कहा इस तरह की डांट-फटकार कम-से-कम यह सुनिश्चित करने के लिए थी कि दूसरे छात्र द्वारा की गई शिकायत पर ध्यान दिया जाए और सुधारात्मक उपाय किए जाएं। आरोपी के अनुसार, यह डांट-फटकार अभिभावक के रूप में थी, ताकि छात्र गलती दोबारा न दोहराए। दोनों के दरम्यान कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, छात्रों की आत्महत्या के मामलों में तेजी आती जा रही है। 2024 में लांच की गई रिपोर्ट, छात्र आत्महत्याएं भारत में फैली महामारी के अनुसार छात्रों में आत्महत्या के मामलों में 4 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि देखी गई है, जो राष्ट्रीय औसत से दोगुनी है। पिछले दशक में 0-24 वर्ष के छात्रों की खुदकुशी की संख्या बढ़कर साढ़े तेरह हजार तक हो गई है। बीते हफ्ते ही सबसे बड़ी अदालत ने राजस्थान सरकार को कोटा में बढ़ती जा रही छात्रों की आत्महत्याओं पर न सिर्फ फटकार लगाई है बल्कि जांच करने को भी कहा है। नई पौध का जीवन बेशकीमती होता है। बावजूद इसके कि सारी दुनिया में तनाव, अवसाद व चिंता के मामले बढ़ते जा रहे हैं। जिनकी चपेट में आने से कोई वर्ग बचा नहीं है। छात्रों पर पढ़ाई का अत्यधिक बोझ तो है ही। उन पर शिक्षास्थल के वातावरण,प्रतिस्पर्धा, रिहायश, खान-पान का भी काफी दबाव बढ़ता जा रहा है। कई मर्तबा वे अपने गृहनगर व परिवार से दूरियों से भी जूझ रहे होते हैं। जरूरी नहीं कि हर मामले में शिक्षक या संबंधित शख्स की मंशा स्पष्ट हो। बेशक यह साक्ष्यों पर निर्भर करता है, परंतु किशोरावस्था में स्वाभिमान पर लगने वाली ठेस भी कभी-कभी जानलेवा हो सकती है। जरूरी है कि किशोरवय में उचित काउंसलिंग और मनोविश्लेषकों की मदद की सुविधा अनिवार्य की जाए। बच्चों को नियम-कायदों में रहना चाहिए मगर प्रबंधन व शिक्षकों को भी उनके बेशकीमती जीवन व स्वाभिमान का ख्याल रखना सीखना चाहिए।


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