लेख@मेरी माँ-तेरी माँ

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माँ है तो हम है,माँ हैं तो जहान हैं। माँ की छाव से बड़ी कोई दुनिया नहीं। माँ के चरणों में जन्नत हैं और उस जन्नत की मन्नत सदा-सर्वदा हम पर आसिन हैं। मॉं की बरकत कभी भेदभाव नहीं करती वह समान रूप से सभी बच्चों पर बरसती हैं। माँ के लिए कोई औलाद तेरी-मेरी नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ मेरी ही होती हैं। एक मॉं के आंचल में सब बच्चे समा जाते हैं पर सब बच्चों के हाथों में एक माँं नहीं समा सकती। इसीलिए मेरी माँ-तेरी माँ की किरकिरी में मॉं परायी हो जाती हैं। क्यां माँ का भी बंटवारा हो सकता हैं, आज मेरी तो कल तेरी और परसों किसी की नहीं। हालात तो बंटवारे की हामी भरते है। बानगी में वक्त के साथ-साथ खून का अटूट बंधन ममता के लिए मोहताज हो जाता हैं। माँ बेटा-बेटा कहती हैं और बेटा टाटा-टाटा कहता हैं । वाह! रे जमाना तेरी हद हो गई जिसने दुनिया दिखाई वह सरदर्द होकर तोल-मोल के चक्कर में बेघर हो गई। यह एक चिंता की बात नहीं वरन् चिंतन की बात हैं कि आखिर ऐसा क्यों और किस लिए हो रहा है? इसका निदान ढूंढे नहीं मिल रहा है या ढूंढना नहीं चाहते हैं। चाहे जो भी इस वितृष्णा में दूध का कर्ज मर्ज बनते जा रहा है, जो एक दिन नासुर बनकर मानवता को तार-तार कर देगा। तब हमें अहसास होगा कि माता, कुमाता नहीं हो सकती अपितु सपूत कपूत हो सकते हैं। बहरहाल,पूत के पांव जब पालने में होते है तब से वो माँ,माँ की मधुर गुंजार से सारे जग को अलौकिक कर देता हैं। अपनी माँ के लिए रोता हैं, बिलकता हैं और तडपता हैं। माँ की गोद में बैठकर निवाला निगलता हैं। उसे तो चहुंओर मात्र दिखाई पड़ती है तो अपनी माँ और माँ माँ कहकर अपनी माँ पर अपना हक जताता हैं। यही ममतामयी माया मॉं-बेटे के अनमोल रिश्ते का बेजोड़ मिलन हैं । लगता है यह कभी टूटेगा नहीं पर काल की काली छाया इस पवित्र बंधन को जार-जार करने में कोई कोर कसर नहीं छोडती। देखते ही देखते मेरी माँ, तेरी माँ और दर-दर की माँ बन जाती हैं। दरअसल,जवान जब आधुनिक व भौतिकी उलझन में नफा-नुकसान का ख्याल करते है। तब बूढे मॉं-बाप बेकाम की चीज बनकर बोझ लगने लगते हैं। जब इनसे कोई फायदा नही तो इन्हें पालने का क्यां मतलब? जिसने कोख में पाला उसकी छाया बुरी है । इसी मानस्किता को अख्तियार किये तथाकथित बेपरवाह खूदगर्ज अपनी जननी को तेरी माँ-तेरी माँ बोलकर अपनी जिम्मेदारियों से छूटकारा चाहते है । वीभत्स चौथे पहर में पनाह देने के बजाय वृद्धाश्रम में ढकेल कर या कुढ़-कुढ़कर जीने के लिए हाथों में भीख का कटोरा थमा देते है। जहां वह बूढी मॉं मेरे बेटे-मेरे बेटे की करहाट में दम तोड़ने लगती हैं कि कब मेरा बेटा आएगा और प्यार से दो बूंद पानी पिलाएंगा। हां! ऐसे कम्बखतों को फिक्र होगी भी कैसे! कि मॉं के बिना जीना कैसा। जा के पूछे उनसे जिनकी माँ नहीं है! वे तुम्हें बताएगें कि मॉं होती क्या है! और नसीब वाले भाई-भाई लडते हो कि माँ तेरी हैं-माँ तेरी हैं। यह कौन सा इंसाफ है कि बचपन में माँ मेरी और जवानी माँ तेरी! तेरी नही तो फिर बूढी माँॅं किसकी! अच्छा नहीं होगा कि माँ को हम अपनी ही रखे क्योंकि माँ तो माँॅं होती है तेरी ना मेरी चाहे वह जन्म देने वाली हो या पालने वाली किवां धरती माँ हो। वह तो हमेशा बच्चों का दुःख हर लेती है और सुख देती हैं। तो क्या हम उस मॉं को जिदंगी के अंतिम पडाव में बांट दे या सुख के दो निवाले और मीठे बोल अर्पित कर दे। ये जिम्मेदारी अब हमारी है पेट मे सुलाने वाली मॉ को पैरों में सुलाये या उसके पैरों को दबाये। समर्पित,स्मरणित अभिज्ञान माँ के हिस्से नहीं होते अपितु मॉं के हिस्से में हम रहते है। इसीलिए मॉं है तो हम है कि यथेष्ठता अंतस में अजर-अमर हैं।


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