
मध्यप्रदेश की ह्रदयस्थली पुण्य सलिला मॉ नर्मदा नर्मदा के तट होशंगाबाद से सीहोर जिला सटा है। सीहोर जिले की बुदनी तहसील से 25 किलोमीटर दूरी पर और होशंगाबाद से 38 किलोमीटर दूरी पर विंध्याचल की खूबसूरत वादियों में प्रकृति ने अपनी अनमोल छटा बिखेर रखी है जहॉ देवीधाम सलकनपुर है। चारों ओर मनोहारी पर्वत श्रृंखलायें है जिनमें एक पर्वत पर मॉ विंध्यवासिनी विजयासेन देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है। शारदीय और चैत्रीय नवरात्र में मॉ की चौखट पर माथा टेकने दूर दराज से लाखों लोग आते है और हरियाली से भरे इस 800 फीट ऊंचे पर्वत पर अलौकिक सौन्दौर्य के बीच मॉ की सुन्दर प्रतिमा के दर्शन, परिक्रमा, वन्दना,स्तुतिकर अपने मन की मुरादें पूरी पाते है।
ऐतिहासिक रूप से पौराणिक कथाओं के आधार पर श्री नर्मदा परिक्रमा और नर्मदा तीर्थो का सेवन महाभारत काल से पूर्व से इस विजयासन शक्तिपीठ की प्रसिद्धि रही है। इस संदर्भ में स्कंद पुराण के अवंति खंडन के रेवाखण्ड में वर्णित नेमावर तीर्थ को नाभिक्षैत्र कहा है और उसके बाद जिस सिद्धेश्वर वैष्ण वी देवी तीर्थ का उल्लेख है वह विंधिया पर्वत पर विराजमान मॉ विजयासन देवी का स्थाजन है। कूर्म पुराण में तीर्थक्रम की व्याख्याण में नर्मदा के उत्तर तट पर विंध्य पर्वत श्रेणी पर यशोदाजी की पुत्री का विराजित होना तथा सिद्धेश्वंरी के नाम से प्रसिद्ध होने का प्रमाण है। शिवपुराण में पार्वती के जन्म के पूर्व देवताओं ने जो प्रार्थना की उसमें विंध्यवासिनी, विजया, सिद्धेश्वरी नाम से देवी का गुणगान किया है। भगवान श्रीकृष्ण की बहिन की स्तुंति एवं चर्चा विजया देवी के नाम से अनेक पुराणों में है जिससे स्पष्ट है कि पौराणिक कथाओं के आधार पर नर्मदा क्षैत्रीय तीर्थ सलकनपुर में जो विजया शक्तिपीठ है वह अतिप्राचीन और पौराणिक मान्यृताओं में देवीधाम सलकनपुर के विजयासन शक्तिपीठ की स्वीभूं घोषणा को प्रमाणित करता है। मान्याता है कि यह मंदिर 6000 साल पुराना है जहॉ जीर्ण-शीर्ण अवस्थां में पहुचने पर इस मंदिर का जीर्णोद्वार अनेक बार किया जा चुका है। इसकी व्यवस्था भोपाल नबाव के संरक्षण में होती थी तब वहॉ पर अखण्ड धूनी और अखण्ड ज्योति स्थापित की जा चुकी थी जो सालों से आज भी प्रज्वलित है। गर्भगृह में देवी की प्रतिमा स्व्यंभू है जिसे किसी के द्वारा तराशा नहीं गया परन्तु बाद में चांदी के नेत्र एवं मुकुट आदि से देवी को सजाया गया है। विजयासन देवी की प्रतिमा के दॉये -बॉये जो तीन संगमरमर की मूर्तियां है जिनके विषय में मान्यता है कि गिन्नौर किले के वीरान होने पर एक घुम्मकड़ साधु ने इन्हें यहॉ पर ले आया था। स्वतंत्र भारत की मध्यप्रदेश विधानसभा ने सन 1956 में इस मंदिर व्यवस्था का पृथक से अधिनियम बनाया जो 1966 में लागू हुआ तथा मंदिर की व्यवस्था प्रजातांत्रिक तरीके से गठित समिति के हाथों में आयी। सलकनपुर देवीधाम में जहॉ मॉ विजयासन का मंदिर है वह धरातल से 800 फुट की ऊंचाई पर है जिसमें पत्थर की 1065 सीढि़या चढ़कर विंध्या चल पर्वत के उच्चासन पर विराजमान मॉ के दर्शन करने का लाभ प्राप्त होता है। 2003 के बाद मंदिर ट्रस्टू के द्वारा मंदिर तक पहुंचने के लिये पहाड़ी को काटकर सड़क मार्ग से व्यवस्था की है जिसमें 500 वाहन प्रतिदिन मंदिर तक पहुंचने की व्यवस्था है तथा उक्त वाहनों की पार्किग व्यवस्था भी की गयी है।
सलकनपुर देवीधाम पहुंचने के लिये रेलमार्ग द्वारा होशंगाबाद रेल्वे स्टेशन, बस स्टैण्ड सहित सीहोर जिले के बुदनी स्टेशन उतरकर वहॉ से बस द्वारा जाया जा सकता है। इसके अलावा माता के दर्शनों के लिये भोपाल से 70 किलोमीटर सड़क मार्ग से आया जा सकता है वही औबेदुल्लागगंज से 35 किलोमीटर सड़क मार्ग से भी मंदिर पहुंच सुविधा प्राप्त की जा सकती है। शारदीय एवं चैत्रीय नवरात्रि के मौके पर रोजाना भोपाल, इटारसी, होशंगाबाद, पिपरिया,्रसोहागपुर, बैतूल आदि स्थानों से 200 किलोमीटर की दूरी भक्तगण टोलियां बनाकर गाते बजाते पैदल ही आते है और सुबह 4 बजे की आरती में शामिल होकर स्वयं को धन्य पाते है। भक्तों का कहना है कि जब तक मॉ के दरवार से बुलावा नहीं आता कोई भी उनके दर्शन नहीं पा सकता है इसलिये जो दर्शन कर बार-बार आते है वे स्वयं को भाग्यशाली मानते है । चैत्रीय और शारदीय नवरात्रि में पूरे नौ दिन तक भक्तों की भीड़ होती है और प्रतिदिन एक लाख से लेकर 5 लाख तक भक्तगण मॉ के दर्शनों की कतार में होकर दर्शन पाते है। भक्तों का कहना है कि मॉ विजयासन उनकी मनोकामनायें पूरी करती है तभी हजारों की संख्या में प्रतिदिन पैदल ही मॉ का ध्वज हाथों में उठाये जय बोलो शेरावाली का,सांचे दरवार की जय हो के उदघोष के साथ भरी दोपहरी हो या ठण्ड हो ये भक्त नंगे पाव-पांव में छाले पड़ने के बाद भी परिवार सहित नन्हें-नन्हें बच्चों एवं बुर्जुगों के साथ लिये एक कारंवा के रूप में मंदिर की ओर कदम बढ़ाये जाते है जिनका कारवा 200 किलोमीटर दूर तक सड़कों के दोनों ओर थमता नजर नहीं आता है।
देवीधाम सलकनपुर का वर्णन
धरातल से मंदिर की दूरी 3500 फिट तथा ऊंचाई 800 फिट पर स्थित मॉ विजयासन के मंदिर पहुंचने के लिये भक्तों को पत्थरों की बनी हुई 1451 सीढि़यों को चढ़नी होती है और वे मॉ का जयकारा लगाते हुये सहज ही मंदिर तक पहुंच कर मॉ की मोहक मूरत के दर्शन कर स्वंय का जीवन सार्थक पाते है। जो भक्त सीढि़यों से जाते है उनके लिये जगह-जगह धूप और बारिश से बचने के लिये विश्रामस्थल बनाये गये है ताकि वे अपनी थकान मिटाकर अपनी सांसों पर नियंत्रण पा सके। मंदिर समिति ने इन विश्रामस्थलों पर पीने के पानी तथा प्रसाद की दुकानों की व्यवस्था की है। 500 सीढि़या चढ़ने के बाद पहला विश्राम स्थाल तथा 800 सीढि़यों पर दूसरा 11 सौ सीढि़यों पर तीसरा विश्राम स्थाल है इसके बाद 251 सीढि़या थकान मिटाने के बाद सहज ही भक्तगण चढ़ने में मॉ का मंदिर करीब पाकर सहजता से उत्साहित होते है। माता जी की कृपा और मनोबल के सहारे हजारों की सॅख्या में भक्तॉ जयकारों के उदघोष के साथ दर्शन को जाते है तो यह जोश देखने योग्य होता है। वहीं जब वे दर्शन के बाद नीचे आते है तो उन्हें सीढि़यां उतरने का पता भी नहीं चलता है।
रोपवे से भी तो दृश्य देखने के काबिल होता है। सलकनपुर वाली मैया के जयकारों का उदघोष, बोलो सॉचे दरवार की जय इत्यादि गगनभेदी जयकारों से भक्तों में जोश देखने लायक होता है। माता की कृपा और मनोबल के सहारे माता के भक्त कब ऊपर पहाड़ पर पहुच जाते है,उन्हें पता ही नहीं चलता। उतनी ही गति से जब भक्त नीचे उतरते हैं तो लगता है माता ने उसे दूना उत्साह भर दिया है। 1451 सीढिय़ा समाप्त होते ही मंदिर का विशाल प्रांगण दिखाई देता है एक और मॉ विजयासन का मंदिर तो दूसरी ओर पानी इत्यादि के नल दिखाई देते है भक्त नल में प्रवाहित शीतल जल से स्वच्छ होकर मॉ के दर्शनों हेतु पक्तिबद्घ हो जाते हे। भक्तों को पंक्तिबद्घ कर दर्शन कराने हेतु यहॉ पाईप की रेलिंग की व्यवस्था है, जिससे भक्त अनुशासित व्यवस्थानुसार मॉ के मंदिर के द्वार पर पहुच जाते है। धूप तथा बारिश से बचाव हेतु यहॉ शेड़
भी लगे है। मॉ विजयासन के मंदिर के द्वार पर एक और द्वारपाल और दूसरी और खोखरी माता की मूर्तियों की स्थापना की है। द्वारपाल मॉ के द्वार के पहलेद्वार है,जो मॉ की सेवा में सदैव तत्पर रहते हुये मॉ के द्वार पर सदियों से इसी प्रकार खड़े हुये हैं।
दूसरी और खेखरी माता की मूर्ति के साथ कुछ और मान्यतायें जुड़ी हुई है। बच्चों को कठिन से कठिन खॉसी इत्यादि होने पर माता-पिता यहॉ आकर माता से बच्चे का शीश नवाकर प्रार्थना करते है। खोखरी माता की कृपा से बच्चा शीघ्र ही स्वस्थ्य हो जाता है तब माता-पिता पुनः माता की शरण में बच्चे को लाकर प्रसाद इत्यादि चढ़ाते हैं।अब माता विजयासन के दर्शना हेतु प्रवेश द्वार के अन्दर जाना होता है। अन्दर जाते ही मंदिर के पुजारी बैठे होते है जिनसे भक्त मामूली सी भेंट देकर मन्नत का धागा लेते है। मॉ के समक्ष वे अपनी इच्छाओं को पवित्र धागे के रूप में बॉश कर इच्छापूर्ति के पश्चात पुनः आने की बात मन ही मन में कहकर मॉ से प्रार्थना करते है भक्तों की मनोकामनायें जल्दी नहीं तो थोड़ा विलम्ब से अवश्य पूरी होती है, लेकिन पूर्ण अवश्य ही होती है।अब भक्त मॉ के गर्भगृह के समक्ष पहुॅच जाते है जहॉ मॉ के दर्शन प्राप्त होते है । गर्भागृह को देखकर तथा मंदिर की निर्माण शैली को देखकर सलकनपुर देवी धाम की प्राचीनता का अनुमान होता है जो अब नवीनतम रूप में बाहरी विशालकाय स्वरूप में निर्मित किया गया है। मंदिर में प्रतिष्ठित मॉ विजयासन की प्रतिमा के साथ ही गणेश जी की भी प्रतिमा विराजमान है। श्री गणेश की प्रतिमा देखकर यह निश्चित कहा जा सकता है कि उक्त दोनों प्रतिमायें मॉ पार्वती तथा श्री गणेश की है जिन्हें विजयासन पीठ के नाम से पुकारा जाता है। गभग्रह के दोनों और द्वारपाल की स्थापना है। द्वार के ठीक ऊपर मॉ के सेवक लांगुरवीर अर्थात हनुमान जी की मूर्ति स्थापित है।
गर्भगृह में मुख्य मूर्ति मॉ विजयासन अर्थात मॉ पार्वती का श्री गणेश जी के साथ पूजा जाता है। मॉ विजयासन की मूर्ति के साथ-साथ र्गीागृह में कुछ अन्य मूर्तियों भी विराजमान है। वे महालक्ष्मी, महा सरस्वती, महाकाली तथा महागौरी की प्रतिमाएं हैं। एक प्रकार से मॉ विजयासन के मठ को बैष्णों रूप में भी माना जाता है। क्योंकि जहॉ भी ये तीन शक्तियां एक स्थान पर एकत्रित होती है , वह वैष्णों देवी का रूप बन जाता है।
गर्भग्रह में लगभ 500 वर्षो से अति प्राचीन दो अखण्ड ज्योतियॉ प्रज्वलित है एक नारियल के तेल की तथा दूसरी घी की जलती साक्षात जोंते हैं। इन दोनों अखण्ड ज्योतियॉ सूर्य और चन्द्रमा के प्रतीक में पूजित होती है। ऐसी भावना है कि ये सूर्य और चन्द्रमा की तरह अटल है। ये दोनों जोतें सूर्य और चन्द्रमा के समान मॉ विजयासन के युग-युग से शासन की अटल प्रमाण है। वैसे मॉ के भक्त मॉ की इन अखण्ड ज्योतिों को मॉ के स्वरूप के समान ही मानते हैं। मंदिर के भीतर गर्भगृह के ठीक सामने भैरव बाबा की मूर्ति की स्थापना है जहॉ भक्त माता के दर्शनों को पूर्ण तथा सार्थक बनाते हैँ। मंदिर में ही भैरव बाबा की मूर्ति के किनारे एक धुनी है जो लगभग 500 वर्षो से ही अखण्ड जल रही है। वर्षो से निरन्तर जलती धूनी स्वामी भद्रानन्द और उनके शिष्यों ने प्रज्वलित की थी, ऐसी मान्यता है। इसी अखण्ड धूनी की भस्म अर्थात राख को ही महाप्रसाद के रूप में गृहण किया जाता है। मंदिर समिति द्वारा महाप्रसाद पैकेट के रूप में भक्तों को दिया जाता है। मॉ के भक्त यह मानते है कि महाप्रसाद की भस्म में समस्त रोग, दोष विपत्तियॉ, कष्टों तथा पारिवारिक समस्याओं को मिटाने की अद्भुत महाशक्ति है जिसे भक्त महा प्रसाद के रूप में अपने निवास पर सदा रखते है।
आत्माराम यादव पीव
ग्वालटोली नर्मदापुरम
मध्यप्रदेश